हम कतई भूल नहीं सकते गांधी-शास्त्री को
वैसे तो इस देश में अनेक महापुरुष पैदा हुए हैं। लेकिन समय बीतने के साथ उनमें अधिकतर लोग कहीं न कहीं गुम हो जाते हैं। जब कभी अचानक उनकी जरूरत पड़ती है, तो उन्हें खंगाल कर हम निकालते हैं और धो पोंछ उनकी तस्वीरें निकाल कर जयंती या पुण्यतिथि मना लेते हैं।
Created By : ashok on :03-10-2022 14:59:46 गिरीश पंकज खबर सुनेंगिरीश पंकज
वैसे तो इस देश में अनेक महापुरुष पैदा हुए हैं। लेकिन समय बीतने के साथ उनमें अधिकतर लोग कहीं न कहीं गुम हो जाते हैं। जब कभी अचानक उनकी जरूरत पड़ती है, तो उन्हें खंगाल कर हम निकालते हैं और धो पोंछ उनकी तस्वीरें निकाल कर जयंती या पुण्यतिथि मना लेते हैं। इस तरह अपने कर्तव्य की इतिश्री भी कर लेते हैं। लेकिन मुझे लगता है गांधी और लाल बहादुर शास्त्री ही ऐसे शख्स हैं जो कभी गुम नहीं हुए। नारे की बात करें तो गांधी हमें करो या मरो के नारे की याद दिलाते हैं तो लाल बहादुर शास्त्री जय जवान जय किसान की। ये लोग हर घड़ी, हर समय हमारे साथ रहते हैं। मैं व्यंग्य भी लिखता हूं इसलिए उस शैली में कहूं तो ऐसा कोई शख्स नहीं होगा जिसकी जेब में गांधी न पड़े हों। हमने गांधी को अपने साथ रखने का एक अच्छा जतन कर लिया है। उनको नोटों पर छाप दिया है। अब तो अनेक ऐसे लोग भी हैं जो दावे के साथ कहते हैं कि मैं गांधी के रास्ते पर चल रहा हूं। कुछ लोग रोज गांधी मार्ग पर चलते, क्योंकि उनका घर ही गांधी मार्ग पर अवस्थित है। यह और बात है कि वे उसे महात्मा गांधी मार्ग न कहकर एमजी रोड कह देते हैं। तो गांधी के साथ हमारा इस तरह का भी रिश्ता कायम है।
मित्रो, गांधी के बगैर हमारी मुक्ति नहीं। अगर आप हम एक महान समाज और महान भारत बनाना चाहते हैं, तो गांधी के साथ ही चलना होगा। गांधी के स्वराज्य को समझना होगा। गांधी के रामराज्य को समझना होगा। गांधीजी आजादी की लड़ाई ही नहीं लड़ रहे थे। उस दौर में वे भारतीय पुनर्जागरण के अग्रदूत भी थे। उनका लक्ष्य केवल भारत को आजाद कराना ही नहीं था, वरन आजाद भारत की कैसी सुंदर तस्वीर बनेगी, इसकी चिंता भी कर रहे थे। यही कारण था कि गांधी जी ने केवल एक विषय का संस्पर्श नहीं किया, वरन अनेक विषयों पर वे लगातार काम करते रहे। जैसे उन्होंने सत्य के प्रयोग किए, अपनी आत्मकथा लिखी, उसी तरह के कदम कदम पर नये भारत के निर्माण का वह प्रयोग कर रहे थे। अपने कर्म से वे उन लोगों को निरंतर संदेश दे रहे थे। अपने अखबार 'यंग इंडिया' हो, चाहे 'हरिजन', उस के माध्यम से वे समय-समय पर जो लेख लिखा करते थे, उन लेखों को हम अगर ध्यान से देखें, तो वे आज भी तरोताजा हैं। उनकी स्थापनाएं बासी नहीं पड़ी। विचारोत्तेजक लगती हैं। उनको पढ़कर यही महसूस होता है कि अगर हम उन सब को आत्मसात करके एक सामाजिक ढांचा बनाएं तो हम आदर्श राम राज्य की स्थापना कर सकते हैं। लेकिन ऐसा संभव नहीं हो रहा है क्योंकि एक घिसा पिटा जुमला है कि हम गांधी 'को' तो मानते हैं, 'गांधी' की नहीं मानते। जिस दिन हम गांधी की मान लेने लगेंगे, तब हमारे गांव हरे-भरे भरे हो जाएंगे। खुशहाल हो जाएंगे। गंदगी से मुक्त हो जाएंगे। किसान आत्महत्या नहीं करेंगे। पुलिस का अत्याचार खत्म हो जाएगा। अँगरेजी और अंग्रेजियत से हम मुक्त होकर अपनी राष्ट्रभाषा को स्थापित कर सकेंगे। हमारी पत्रकारिता नैतिक पत्रकारिता हो जाएगी। हम स्त्री का सम्मान करने लगेंगे। बलात्कार की घटनाएं लगभग खत्म हो जाएंगी। और हमारे राजनेता जो भ्रष्टाचार में लिप्त रहते हैं, वे भी पाक साफ हो जाएंगे। छुआछूत, जात पात, धर्म के झगड़े, सब खत्म हो जाएंगे। लेकिन यह सब अब हमें एक यूटोपिया लगता है, क्योंकि आजादी के सात दशकों के बाद हमने राजनीति की जो पीढ़ी तैयार की है, वह पीढ़ी गांधी का नाम तो लेती है, राजघाट पर जाकर उन्हें प्रणाम तो करती है, लेकिन गांधी उनकी आत्मा का हिस्सा नहीं बन पाते।
1915 में गांधी भारत लौटे और जब उन्होंने देश का भ्रमण किया, तभी उनके समझ में यह बात आ गई थी कि इस देश में अभिव्यक्ति की कोई भाषा सर्वमान्य भाषा कोई हो सकती है तो वह हिंदी हो सकती है। इसलिए 1916 में जब कांग्रेस अधिवेशन में गांधी जी ने हिंदी में भाषण देना शुरू किया, तो अहिंदी भाषी लोग विचलित हुए और उन्होंने गांधी को टोकते हुए कहा कि आप अंग्रेजी में बोलिए। तब गांधी जी ने अंग्रेजी में भाषण तो दिया, लेकिन यह भी आग्रह किया कि आप सब लोग भी धीरे-धीरे हिंदी बोलना सीख लें। गांधी ने अपने युवा पुत्र को हिंदी का प्रचार-प्रसार करने को कहा। 1936 में गांधी जी ने वर्धा में राष्ट्रभाषा प्रचार समिति की स्थापना की। लेकिन यही गांधी हैं जिन्होंने बाद में हिंदुस्तानी प्रचार सभा की भी स्थापना की, क्योंकि गांधी सिर्फ हिंदी का उन्नयन नहीं चाहते थे। गांधी जी ने तो 1917 में ही कहा था कि वही भाषा इस देश की राष्ट्रभाषा बनने योग है, जिसे देश के अधिकतर लोग बोलते हैं। इसके कारण सरकारी कामकाज आसानी से हो सके। उन्होंने यह भी कहा कि राष्ट्र भाषा के बिना तो हमारा स्वराज ही अधूरा रहेगा। हिंदी जल्दी से जल्दी अंग्रेजी का स्थान ले ले।
शास्त्रीजी ने जय जवान जय किसान का नारा लगाकर यह संदेश दिया था कि देश की सुरक्षा जितनी जरूरी है उतनी ही महत्वपूर्ण है हमारी आंतरिक सुरक्षा, जो खाद्यान्न से संभव होगी। इसलिए हमें जवान भी चाहिए तो किसान भी चाहिए। वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने शास्त्री जी के नारे को और आगे बढ़ाते हुए जय जवान जय किसान के साथ जय विज्ञान को भी जोड़ा। लेकिन नवउदारवादीकरण के कारण बाजारवाद ज्यादा मुखर हुआ और इस ने धीरे-धीरे हमें गांव से ही विमुख कर दिया। जबसे ब्रांडेड उत्पाद भारत के बाजार में अपना कब्जा जमाने लगे, तब से धीरे-धीरे चर्मकार, लोहार, बढ़ई, कुम्हार आदि सब खत्म होने लगे। ऐसे समय में हमें गांधी जी के ग्राम स्वराज को याद करना है और लाल बहादुर शास्त्री के जय किसान को याद करते हुए गांव के उन्नयन के बारे में भी सोचना है। किसान के उन्नयन के साथ-साथ विज्ञान का उन्नयन तो हो ही रहा है।
(यह लेखक के निजी विचार हैं।)