प्रेरक प्रसंग: जैसा अन्न वैसा मन
एक साधु ने देशाटन की योजना बनाई वह एक गांव से दूसरे गांव चले जा रहे थे इसी तरह सिलसिला शुरू हुआ। जहां रात हो जाती उसी गांव में किसी घर में आसरा ले लेते। एक गांव में प्रवेश करते ही शाम हो गई गांव की सीमा पर जो पहला घर दिखा वहां पहुंचे आश्रय मांगने।
Created By : Amit on :07-09-2022 18:05:55 प्रतीकात्मक खबर सुनेंएक साधु ने देशाटन की योजना बनाई वह एक गांव से दूसरे गांव चले जा रहे थे इसी तरह सिलसिला शुरू हुआ। जहां रात हो जाती उसी गांव में किसी घर में आसरा ले लेते। एक गांव में प्रवेश करते ही शाम हो गई गांव की सीमा पर जो पहला घर दिखा वहां पहुंचे आश्रय मांगने।
घर बड़ा था और उस घर में बस दो जन रहते थे घर के मालिक ने साधु को रात बिताने की अनुमति दे दी।
गृहस्वामी ने साधु को भोजन के लिए भी कहा वैसे तो साधु स्वयं पकाकर ही खाते थे, लेकिन उस दिन उन्होंने उसके घर का भोजन स्वीकार कर लिया और फिर बरामदे में पड़ी खाट पर लेट गए।
घर के अहाते में गृहस्वामी का सुन्दर हृष्ट पुष्ट घोडा भी बंधा था साधु उसे निहारने लगे। साधु के मन में विचार आया- यदि यह घोड़ा मेरा हो जाए तो देशाटन कितना सरल हो जाता एक दिन में कई-कई गांव सरलता से घूम लेता।
इन्हीं विचारों में डूबे थे उन्होंने तय किया कि जैसे गृहस्वामी सो जाता है, मैं आधी रात को घोड़ा लेकर चुपके से निकल लूंगा और साधु ने जैसा सोचा वैसा ही किया भी साधु वह घोड़ा ले उड़ा।
गांव से काफी आगे निकल जाने पर साधु ने पेड़ से घोड़ा बांधा और फिर सो गया। प्रातः उठकर उसने नित्यकर्म निपटाया और वापस घोड़े के पास आया तो फिर उसे रात की बातें याद आने लगीं।
उन्हें पछतावा हुआ-अरे! मैने यह क्या किया? एक साधु होकर मैने चोरी की? यह कुबुद्धि मुझे क्यों सुझी?
उसने घोड़ा गृहस्वामी को वापस लौटाने का निश्चय किया और उल्टी दिशा में चल पडा। गृहस्वामी से क्षमा मांगी और घोड़ां लौटा दिया।
साधु ने सोचा कल मैंने इसके घर का अन्न खाया था, कहीं मेरी कुबुद्धि का कारण इस घर का अन्न तो नहीं?
जिज्ञासा से गृहस्वामी से पूछा- आप काम क्या करते हैं, आपकी आजिविका क्या है?’
सकुचाते हुए गृहस्वामी ने पहले टालने की कोशिश की फिर साधु जानकर सच्चाई बता दी।
वह बोला- महात्माजी मैं चोर हूं और चोरी करके अपना जीवनयापन करता हूं’।
साधु की शंका का समाधान हो गया चोरी से जुटाया अन्न पेट में पहुंचा तो उसने मन में कुबुद्धि पैदा कर दी। प्रातः नित्यकर्म में उस अन्न के अंश बाहर आते ही सद्बुद्धि वापस लौटी।
जैसा आहार लेंगे, वैसा व्यवहार हो जाएगा जो सात्विक भोजन करते हैं उनके विचार सात्विक रहते हैं बात-बात पर क्रोध नहीं आता, किसी का बुरा करने को नहीं सोचते।
जिनका आहार दूषित होता है उनकी बुद्धि नीति-अनीति का अंतर कुशलता से नहीं कर पाती । इसे ऐसे समझें कि मांस-मदिरा के सेवन के पश्चात स्वभाव में उग्रता आती है किंतु जैसे ही वह आहार शरीर से बाहर जाता है व्यवहार पर पछतावा होने लगता है।