विकास का वास्ता देकर तय किया विनाश का रास्ता?
दशकों से इस इलाके में पहाड़ों के धंसान का सिलसिला जारी है। चूँकि इस बार यह विषय जोशीमठ जैसे पर्यटन व तीर्थ स्थलीय कस्बे वाली घनी आबादी के इलाके से जुड़ा है इसलिए देश-दुनिया की नजरों में यह एक बड़ी `प्रकृतिक आपदा` के नाम से जरूर सामने आया।
Created By : ashok on :13-01-2023 16:57:53 निर्मल रानी खबर सुनें
निर्मल रानी
उत्तराखंड के सीमांचलीय कस्बे जोशीमठ में पहाड़ों के धंसने की सूचना मिलने के बाद खबर है कि प्रधानमंत्री कार्यालय स्वयं इस प्राकृतिक आपदा पर नजर रख रहा है। पहाड़ों के धंसने का सिलसिला फिलहाल यहीं थम जाएगा या अभी ऐसी और घटनाओं का सामना क्षेत्रवासियों को करना पड़ेगा।
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इसके बारे में अभी तो निश्चित तौर पर कुछ नहीं कहा जा सकता परन्तु इतना जरूर है कि पहाड़ों के धंसान की इस घटना ने उत्तराखंड वासियों कुमाऊं, पौड़ी व गढ़वाल क्षेत्र के लोगों के माथे पर भय व चिंता की लकीरें जरूर खींच दी हैं। जोशीमठ में पहाड़ों का धंसना, इमारतों में दरार आना या कुछ इमारतों का तिरछा हो जाना भले ही यह खबरें टीवी पर समाचार प्रसारण की 'विस्फोटक शैली' व समाचार के प्रस्तुतिकरण के चलते नई सी प्रतीत होती हों परन्तु यह इस इलाके में अत्यंत मद्धिम गति से चलने वाली निरंतर घटना का ही एक बड़ा रूप कहा जा सकता है। दशकों से इस इलाके में पहाड़ों के धंसान का सिलसिला जारी है। चूँकि इस बार यह विषय जोशीमठ जैसे पर्यटन व तीर्थ स्थलीय कस्बे वाली घनी आबादी के इलाके से जुड़ा है इसलिए देश-दुनिया की नजरों में यह एक बड़ी 'प्रकृतिक आपदा' के नाम से जरूर सामने आया।
जोशीमठ आपदा के बाद एक बार फिर यह बहस तेज हो गई है कि क्या विकास के नाम पर प्रकृति के साथ लगातार हो रही छेड़छाड़ के परिणाम स्वरूप ही ऐसी आपदाओं का सामना करना पड़ रहा है? दशकों से छिड़ी इस बहस के बावजूद पृथ्वी के दोहन का सिलसिला, रुकना तो दूर क्या कम भी हुआ है? या इसके ठीक विपरीत यह बढ़ता ही जा रहा है? जहां तक जोशीमठ से जुड़ी पर्वत श्रृंखलाओं का प्रश्न है,
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तो उन्हें तो पिछले कई वर्षों से धार्मिक पर्यटन विकसित करने तथा देश की सुरक्षा के नाम पर लगातार ध्वस्त किया जा रहा है। उत्तराखंड के पहाड़ों में दूरस्थ स्थित केदारनाथ, बद्रीनाथ, गंगोत्री और यम्ुानोत्री जैसे चारों प्रमुख तीर्थधाम को सड़क मार्ग से जोड़ने के लिए विशेष सर्किट तैय्यार किया जा रहा है। गौरतलब है कि समुद्र तल से गंगोत्री की ऊंचाई 11,204 फीट. बद्रीनाथ की 10,170, यमुनोत्री की 10,804 और केदारनाथ की ऊंचाई 11,755 फीट है। हिमालय में स्थित इन चारों धामों में निरंतर बर्फबारी के कारण यहाँ मौसम ठंडा रहता है। दिसंबर 2016 में जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चारधाम परियोजना की आधारशिला रखी थी उस समय मीडिया द्वारा इसे प्रधानमंत्री का 'मास्टर स्ट्रोक' बताया गया था। उस समय यह भी बताया गया था कि लगभग 12000 करोड़ रुपये की लागत से बनने वाली 900 किलोमीटर लंबी इस चारधाम सड़क परियोजना का उद्देश्य उत्तराखंड के चारों प्रमुख धामों के लिए तीर्थ यात्रियों को हर मौसम में सुलभ और सुविधाजनक रास्ता देना है। सर्वोच्च न्यायालय ने इस प्रोजेक्ट के तहत तीन डबल-लेन हाईवे का निर्माण करने की इजाजत दी थी। हालांकि उसी समय सिटीजन्स फॉर ग्रीन दून नामक एक एनजीओ ने पर्यावरण के प्रति गहन चिंता जताते हुए इस प्रोजेक्ट को चुनौती भी दी थी। परन्तु न्यायालय ने देश की रक्षा जरूरतों के आधार पर इसे सही ठहराया। केवल राजमार्ग निर्माण ही नहीं बल्कि इसी इलाके में रेलवे लाइन्स भी बिछाई जा रही हैं जिसके लिये अनेक छोटी बड़ी सुरंगें भी बनाई जा रही हैं। इसी राष्ट्रीय सुरक्षा, तीर्थयात्रियों की सुविधा व विकास के नाम पर प्रकृति के साथ खिलवाड़ करने का नतीजा भी जोशीमठ पर्वत धंसान के रूप में हमारे सामने आता रहता है।
इसी तरह भूगर्भ से कोयला निकालने की कवायद जोकि भारत में सबसे पुराने कोयला क्षेत्र पश्चिम बंगाल के रानीगंज में 1774 में ईस्ट इण्डिया कंपनी द्वारा शुरू की गई थी। वह झारखण्ड, उड़ीसा, मध्यप्रदेश, असम, छत्तीसगढ़, मेघालय और अरुणाचल प्रदेश के कई इलाकों में अंधाधुंध कोयला दोहन के रूप में आज भी जारी है। दशकों पूर्व से ही इस बेतहाशा कोयला दोहन के दुष्परिणाम भी आने शुरू हो चुके हैं। झारखण्ड व छत्तीसगढ़ जैसे कई राज्यों से कोयला खनन क्षेत्रों से जमीन के धंसने, जमीन से धुंआ निकलने, कहीं धरती से पानी निकलने, मकान ढहने आदि की खबरें आती रहती हैं।
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चूँकि इस इलाके के प्रभावित लोग प्राय: दो वक़्त की रोटी के लिए जूझने वाला गरीब मजदूर वर्ग के व्यक्ति होते हैं, इसलिए इनके भय व तबाही की खबरें स्थानीय समाचारपत्रों के भीतर के किसी कोने में प्रकाशित होकर रह जाती हैं। टीवी तो इन खबरों को दिखाना ही नहीं चाहता, क्योंकि उसे इनमें कोई 'मास्टर स्ट्रोक' दिखाई नहीं देता। इसी तरह रेत खनन के धंधे से जुड़े लोगों को इस बात की फिक्र नहीं रहती कि उनके अवैध रेत या मिट्टी खनन के परिणाम स्वरूप बांध या तटबंध के किनारे टूट सकते हैं। इससे गांव के गांव बाढ़ से तबाह होते हैं। बाढ़ का कारण भी इसी तरह का अवैध खनन बनता है। पिछले दिनों बिहार के एक नव निर्मित पुल का खंबा तो कथित रूप से केवल इसलिए टूट गया क्योंकि भ्रष्टाचार के संरक्षण में उस खंबे की जड़ों में से भी रेत निकाली जा चुकी थी जिसके चलते वह खंबा टेढ़ा हो गया और सैकड़ों करोड़ की लागत से बना पुल ढह गया।
देश के तमाम क्षेत्रों में विकास के नाम पर चलने वाले ऐस कोयला, रेत व मिटटी खनन, विध्वंस, वृक्ष कटाई, सुरंग निर्माण, बारूद ब्लास्ट, सड़क निर्माण के लिए होने वाली पहाड़ों की कटाई, बड़ी संख्या में इन्हीं कारणों से हो रहे वृक्षों के कटान आदि धरती को तबाही के द्वार तक पहुँचाने के पर्याप्त कारण हैं। बड़े पैमाने पर विकास के नाम पर होने वाली इन्हीं मानवीय 'कारगुजारियों' का नतीजा ही ग्लोबल वार्मिंग, ग्लेशियर्स के पिघलने, तापमान के गर्म होने व समुद्रतल के बढ़ने, भूस्खलन, पहाड़ धंसने जैसी आपदाओं के रूप में भी सामने आ रहा है।
(यह लेखिका के निजी विचार हैं।)