खुले में शौच की शर्मिंदगी झेलने को मजबूर आधी आबादी
स्वच्छ भारत अभियान को शुरू हुए एक लंबा अरसा बीत गया है। इसके बावजूद आजादी के अमृत काल में 26 प्रतिशत अदालती परिसरों में महिलाओं के लिए टॉयलेट उपलब्ध नहीं है।
Created By : ashok on :04-03-2023 15:17:15 सोनम लववंशी खबर सुनें
सोनम लववंशी
साल 2017 में अक्षय कुमार अभिनीत एक फिल्म आई थी-टॉयलेट एक प्रेम कथा। इस फिल्म की कहानी ग्रामीण इलाकों में स्वच्छता के महत्व जैसे गंभीर मुद्दे पर प्रकाश डालती है, लेकिन आजादी के अमृत काल में भी अगर आधी आबादी को खुले में शौच के लिए जाना पड़े। फिर अमृत काल और सरकारी तंत्र पर सवालिया निशान खड़े होना लाजिमी है। स्वच्छ भारत अभियान को शुरू हुए एक लंबा अरसा बीत गया है। इसके बावजूद आजादी के अमृत काल में 26 प्रतिशत अदालती परिसरों में महिलाओं के लिए टॉयलेट उपलब्ध नहीं है। जो यह सोचने पर मजबूर कर रहा है कि अगर अदालत परिसरों का यह हाल है तो फिर अन्य जगहों के हालात कैसे होंगे? टॉयलेट जैसी मूलभूत सुविधाएं एक सभ्य और संभ्रांत समाज की आवश्यकता है। ऐसे में सिर्फ स्वच्छ भारत अभियान का ढिंढोरा पीटने से हमारी जिम्मेदारी पूर्ण नहीं होगी।
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महिलाओं को टॉयलेट जैसी सुविधाएं मयस्सर करवाना समाज और सरकार की जिम्मेदारी में शामिल होना चाहिए। आज हम देश के विकास में नित नए कसीदे काढ़ रहे हैं। जबकि हमारे ही देश की आधी आबादी आज भी खुले में शौच करने को मजबूर है। वैसे तो वर्तमान सरकार शौचालयों के निर्माण में अरबों- करोड़ों रुपये खर्च होने का दम भी भरती है, लेकिन जब कोई रिपोर्ट आती है। फिर सच्चाई से सामना समाज और सरकार का होता है। आधुनिक भारत में भी महिलाएं शौचालय के लिए संघर्ष करने को मजबूर हंै, तो यह दु:खद स्थिति बयाँ करती है। आखिर क्या वजह है जो वर्तमान समय में भी हमारे देश में सभी के लिए शौचालय उपलब्ध नहीं है। स्वच्छता तो मानव जीवन में बहुत जरूरी है और महिलाओं को विशेषकर घर की इज्जत से जोड़कर देखा जाता है। फिर उन्हें शौच के लिए बाहर भेजने में आखिर क्या समझदारी कही जा सकती है? शौच जो हमारी दैनिक दिनचर्या का अहम हिस्सा है, लेकिन वर्तमान समय में दुनिया की एक बड़ी आबादी के पास स्वच्छता और उससे जुड़ी बुनियादी सुविधाओं का अभाव है। पूरी दुनिया के लगभग 3.6 बिलियन लोगों के लिए शौचालय तक पहुंच आज भी नामुमकिन है। यहां तक कि सतत विकास लक्ष्य में भी साफ पानी और स्वच्छता की बात कही गई है। साल 2030 तक इस लक्ष्य को पूरा करने का प्रयास भी किया जा रहा है। लेकिन अभी पर्याप्त जागरूकता की कमी साफ नजर आ रही है। यही वजह है कि महिलाएं अदालत परिसरों में भी शौचालय की सुविधाओं से वंचित रह जाती हैं।
प्रधानमंत्री मोदी ने साल 2019 में ही भारत को खुले में शौच मुक्त घोषित कर दिया था। खुले में शौच मुक्त का सीधा सा मतलब है कि अब हमारे देश में लोग खुले में मल त्याग नहीं करेंगे। लेकिन अब भी न केवल ग्रामीण क्षेत्रों में बल्कि शहरी आबादी में भी लोग खुले में शौच करते देखे जा सकते हैं। खासकर सड़कों व रेल की पटरियों के किनारे, खेतों में यहां तक कि घर के बाहर खुले में लोग मल त्याग करते हैं। जो स्वच्छ भारत मिशन पर सवाल तो खड़े करता है। साथ ही सरकार और समाज की सोच पर भी करारा प्रहार करता है। एनएसएसओ की एक रिपोर्ट की मानें तो भारत के 71.3 प्रतिशत घरों में ही अब तक शौचालय बन पाएं हैं। ऐसे में सोचने वाली बात है कि जब शौचालय ही 100 प्रतिशत घरों में नहीं बने तो भारत पूरी तरह खुले में शौच से मुक्त कैसे हो गया? वैसे सवाल यह भी है कि क्या शौचालय का इस्तेमाल करने वाले गंदगी नहीं फैला रहे? सच तो यह है कि पर्याप्त सुविधाओं के अभाव के चलते खुले में शौच मुक्त होना भी एक नई समस्या को जन्म दे रहा है।
बात अगर प्रसिद्ध नारीवादी चिंतक एवं लेखक सिमोन द बोउवर कि करे तो उनका मानना था कि- नारी पैदा नहीं होती बल्कि उसे नारी बना दिया जाता है। हमारे देश की कुल आबादी में लगभग आधी हिस्सेदारी महिलाओं की है जो आज भी राजनीतिक, सामाजिक व आर्थिक रूप से वंचित और उपेक्षित है। आज भी अपनी छोटी छोटी आवश्यकताओं के लिए पुरुषों पर ही निर्भर रहना ही महिलाओं की नियति बन चुकी है। महिलाओं की अपनी पीड़ा और अपना दर्द है जिसे मर्दवादी समाज दरकिनार कर देता है।
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फिर बात चाहे मासिक धर्म की हो या फिर खुले में शौच की? उसे अपनी पीड़ा स्वयं झेलना होता है। आज भी सार्वजनिक क्षेत्रों, माकेर्टों में महिलाओं के लिए अलग टॉयलेट आसानी से उपलब्ध नहीं होते हैं। जो यह दर्शाता है कि महिलाओं की नियति में संघर्ष हर कदम पर है। केंद्र सरकार की प्रमुख योजना स्वच्छ भारत अभियान के अंतर्गत सर्वोच्च न्यायालय, विशेषकर जिला न्यायालयों में टॉयलेट के नवीनीकरण और मरम्मत करने के लिए स्वच्छ न्यायालय परियोजना लॉन्च की गई थी। इस परियोजना को सभी 16,000 अदालत परिसरों में स्थित टॉयलेट को छह महीनों के अंदर बेहतर स्थिति में करने के लिए लॉन्च किया गया था।
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लेकिन दिल्ली में न्यायिक सुधार पर काम करने वाली स्वायत्त संस्था 'विधि' की सर्वे रिपोर्ट जिला अदालतों में महिलाओं के लिए शौचालयों की स्थिति पर गंभीर सवाल खड़े कर रही है। इस सर्वेक्षण में अदालत परिसरों में स्थित टॉयलेट की दयनीय स्थिति का खुलासा हुआ है। रिपोर्ट के अनुसार देश की 665 जिला अदालतों में से करीब 100 जिला अदालतें ऐसी हैं, जिनमें महिलाओं के लिए टॉयलेट सुविधा उपलब्ध नहीं है। आंध्र प्रदेश, असम, बिहार, छत्तीसगढ़, जम्मू एवं कश्मीर, झारखंड, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, मणिपुर, नगालैंड, ओडिशा, पंजाब, पुडुचेरी, राजस्थान, तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और पश्चिम बंगाल ऐसे राज्य हैं जिसके कई जिलों में तो अदालत परिसरों में महिलाओं के लिए टॉयलेट ही नहीं हैं।
(यह लेखिकाके निजी विचार हैं।)