गाँव के खेलों से मेल होना बहुत जरूरी

भारत की आत्मा गांवों में बसती है। भारत के लाखों गाँव इस देश को भारत बनाते हैं। शहर की संस्कृति तो पश्चिम की ओर पलायन करने की हो गई है।

Created By : ashok on :08-10-2022 14:46:56 गिरीश पंकज खबर सुनें

गिरीश पंकज
भारत की आत्मा गांवों में बसती है। भारत के लाखों गाँव इस देश को भारत बनाते हैं। शहर की संस्कृति तो पश्चिम की ओर पलायन करने की हो गई है। लेकिन आज भी गाँव अपनी अस्मिता के साथ स्वयं को जीने की कोशिश कर रहे हंै। यह और बात है कि धीरे-धीरे हमारे गाँव शहरों के उपनिवेश बनते जा रहे हैं। बड़ी चालाकी के साथ गाँव को नगर पालिका या नगर निगम क्षेत्र में शामिल करके उसका शहरीकरण करने की कोशिश भी हो रही है। हालांकि यह कोशिश अनायास हो रही है, लेकिन उस खतरे को समझने की जरूरत है। इस लापरवाही के कारण एक गाँव खत्म हो जाता है। देश भर में अनेक गाँव तथाकथित विकास की बलि चढ़ गए। आज भी गांव को लूटने का सोचने की सामंती मानसिकता बरकरार है, फिर भी आज गांव खुद को बचाने के लिए संघर्ष करते रहते हैं। गाँव अपने पारंपरिक परिवेश में दिखाई देते हैं, तो प्रसन्नता होती है।
यह अच्छी खबर है कि छत्तीसगढ़ में गाँव के इसी मर्म को समझने की कोशिश की गई है। इसलिए उसने गाँव से लेकर गाय तक अपने आप को केंद्रित करने की भी कोशिश की। नरवा, गरवा, घुरवा, बाड़ी हो, गोठान हो, गोबर और गोमूत्र खरीदने की योजना यानी गोधन न्याय योजना हो, ग्राम आधारित त्योहारों में छुट्टी देने का निर्णय हो, सब का संबंध है गांव से है। सरकार अगर गांव पर फोकस करे, तो सही मायने में समग्रता में विकास हो सकता है। यही कारण है कि 6 अक्टूबर को स्वामी आत्मानंद की जयंती मनाने के साथ यहाँ 'छत्तीसगढ़िया ओलंपिक' की एक अभिनव शुरुआत हुई है। इस ओलंपिक में चौदह पारंपरिक खेल खेले जाएंगे। उनकी प्रतियोगिताएं होंगी और विजेताओं को नकद राशि भी प्रदान की जाएगी। हालाँकि नकद राशि अपेक्षा से बहुत कम है। इसे चार-पाँच गुना करने की जरूरत है।
लेकिन संतोष की बात है कि फिलहाल एक अच्छा सिलसिला शुरू हुआ है। आने वाले समय में विजेताओं को सम्मानजनक राशि भी प्रदान की जाएगी। कह सकते हैं कि अभी प्रायोगिक तौर पर आयोजन हो रहा है। इसकी खूबियों और खामियों का अध्ययन करके भविष्य में इसे और व्यवस्थित किया जाएगा। अन्य राज्यों में भी गांव के खेलों को प्रोत्साहित करने के लिए ऐसे ही आयोजन किए जाने चाहिए।
हमारा लोक जीवन बेहद समृद्ध रहा है। ग्राम- संस्कृति भारत की पुरातन संस्कृति है । जहां हमने नदी, तालाब, पर्वत, वृक्ष आदि को प्रणम्य माना। उनका संरक्षण किया। लोक-गीत, लोक-नृत्य, लोक-कहावतों आदि की समृद्ध परंपरा हमें अभिभूत कर देती है। इसी तरह गांव के सुंदर प्यारे खेल भी हमें बचपन से ही आनंदित करते रहे हैं। चाहे वह गेंड़ी, बाटी, भौंरा खेलना हो, फुगड़ी हो, बिल्लस हो, कबड्डी, सांखली, रस्साकसी, लंगड़ी दौड़, खो-खो, गिल्ली डंडा या पिट्ठुल इत्यादि हो। हर खेल में एक रस तो है ही, शारीरिक दृष्टि से उसका विशेष महत्व भी है।
शहरी बच्चे भले ही इन खेलों से उसने परिचित न हों, इंटरनेट और स्मार्ट मोबाइल के दौर में अब बच्चे बाहर निकल कर खेल खेलना ही नहीं चाहते। खेलेंगे तो क्रिकेट खेलेंगे, बस! गांव के खेल तो आज के बच्चे लगभग भूल ही गए हैं। जबकि ये सारे खेल हमें जमीन से जोड़ते हैं। वैसे तो दूसरे खेल भी जमीन पर ही होते हैं, लेकिन यहां सवाल अपनी परंपरा, संस्कृति से अनुराग का है। शहरी जीवन में समरस होने के कारण अनेक लोग लोक-जीवन के तमाम खेलों से परहेज करने लगते हैं। उन खेलों को खेलना या उन्हें देखना तक उन्हें गंवारा नहीं।
वे शहरी जीवन में लोकप्रिय क्रिकेट, बैडमिंटन, गोल्फ आदि के अधिक निकट हो जाते हैं। फुटबॉल, हॉकी भी उत्कृष्ट खेल हैं, मगर गांव में यह कम खेले जाते हैं। गाँव के अपने खेल हैं, जिनमें लोक-जीवन मगन रहता है। छत्तीसगढ़िया ओलंपिक के बहाने ग्रामीण खेलों को महत्व तो मिलेगा ही, उसके प्रति गाँव के उन युवाओं में अनुराग भी बढ़ेगा, जो शहरी खेलों की ओर आकर्षित हो जाते हैं और अपने जड़ों से जुड़े खेलों से दूर हो रहे हैं। ग्रामीण खेलों की प्रतियोगिताओं के कारण शहरी बच्चे भी उन खेलोंं को निकट से देखेंगे और उसके आनन्द को भी समझेंगे। और फिर उनमें खेलने की रुचि भी बढ़ेगी। आज जो लोग चालीस-पचास साल या उससे ऊपर के हो रहे हैं, उन्हें अपने बचपन के अनेक खेल जरूर याद आते होंगे।
इन पंक्तियों के लेखक ने भी कंचे वाला खेल खूब खेला है। खो खो, कबड्डी, कुश्ती और गिल्ली डंडा भी खेला है। इन खेलों को बड़े चाव से खेलते हुए हम सब बड़े हुए। हम में से अधिकांश लोग भी यही खेल खेले होंगे। आजकल के शहरी बच्चे इन खेलों के बारे में नहीं जानते हैं। शहरी बच्चे ग्रामीण खेलों को जानें, इसलिए बहुत जरूरी है कि इन खेलों के बारे में वीडियो बनाकर यूट्यूब में भी डाला जाए, ताकि यूट्यूब के जरिए भी नए बच्चे इन खेलों को देखें, समझें और खेलने की कोशिश करें। शहरी माता पिताओं का यह दायित्व है कि वे कभी-कभार अपने बच्चों को गांव की सैर करवाएं। वहां के खेत खलिहान दिखाएं। वहां हरी घास चरती गायों के दर्शन करवाएं। नदियों के निकट बैठें। पहाड़ तक जाएं। अमराई की छांव तले बैठकर भोजन करें। कुल मिलाकर शहरी बच्चों को ग्राम में संस्कृति से जोड़ने की जरूरत है ताकि वे बड़े हों तो गांव के महत्व को समझें और उनका और वहाँ पसरे पर्यावरण का संरक्षण भी करते रहें। आज नए बच्चे पर्यावरण और खेलों से ही दूर नहीं हो रहे वरन लोक-संगीत और लोक-कला, लोक- शिल्प आदि से भी धीरे-धीरे दूर होते जा रहे हैं। ऐसे समय में लोक खेलों की स्पर्धा ग्राम्य- संस्कृति को और अधिक जीवंत कर देगी, ऐसा विश्वास है।
(यह लेखक के निजी विचार हैं।)

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