महात्मा गांधी बहस में नहीं, जन-जन के विचार-आचरण में हैं

आजादी अहिंसा से नहीं मिली है; मिल भी नहीं सकती है। भारत स्वतंत्र हुआ है भगत सिंह के बम बंदूक से; नहीं कि गांधी की लाठी से। और भी जाने क्या-क्या और कैसी-कैसी बातें होती रहती है।

Created By : ashok on :30-01-2023 16:05:47 डॉ. संजय पंकज खबर सुनें


डॉ. संजय पंकज


इन दिनों बंद कोठरी से लेकर चौक-चौराहों तक बहस का बाजार गरम रहता है। मुद्दा बहुत गंभीर नहीं लेकिन दिशाहीन और बेमतलब का है। तथाकथित बुद्धिजीवी नथुने फड़का कर ऊंचे स्वर में कहते हुए मिल जाते हैं कि देश को आजाद करने में गांधी की भूमिका महत्वपूर्ण नहीं है।

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आजादी अहिंसा से नहीं मिली है; मिल भी नहीं सकती है। भारत स्वतंत्र हुआ है भगत सिंह के बम बंदूक से; नहीं कि गांधी की लाठी से। और भी जाने क्या-क्या और कैसी-कैसी बातें होती रहती है। और ताज्जुब तो यह है कि ये बातें वे करते हैं जिन्होंने गुलामी नहीं देखी, जिन्होंने गांधी को ठीक से पढ़ा नहीं; जानने-समझने की तो बात दूर है, जिन्होंने राह चलते किसी छुटभैये दल विशेष के नेता तथा टुच्चे-लुच्चे सड़क छाप का अनाप-शनाप भाषण सुन लिया। वैसे बुद्धिजीवी का अर्थ बड़ा ही भ्रामक है।

जिन्हें हम बुद्धिजीवी कहते या मानते हैं, दरअसल वे स्वार्थी और धूर्त होते हैं। भारत की स्वतंत्रता का नेतृत्व तथाकथित बुद्धिजीवियों ने जरूर किया, लेकिन स्वतंत्रता प्राप्ति का श्रेय भारत के एक एक व्यक्ति को जाता है। व्यक्ति-व्यक्ति की समुच्चय शक्ति ने ही स्वतंत्रता देवी को प्रतिष्ठित किया और भारत आजाद हुआ। महात्मा गांधी बुद्धिजीवी नहीं, विवेकी थे। चिंतक और संत थे। ज्ञानी और द्रष्टा थे। कर्मयोगी और मनीषी थे। करुणा, प्रेम और सहिष्णुता के सजग सद्भाव थे। 'नेता' नहीं, नायक थे। सत्ताधीश या शासक नहीं सेवक और मनुष्य थे। साध्य नहीं साधक थे। गांधी ने भारत की जीवंतता को देखा। एक-एक जन की आत्मा को देखा। क्रांति को शांति और समृद्धि में देखा। अहिंसा उनका अमोघ शस्त्र था। वे कायर नहीं; वीर थे, निडर और निर्भीक थे। सबके जीने के नैसर्गिक अधिकार को सुरक्षित रखना चाहते थे। जीवन की कीमत पर उन्हें बहुत कुछ स्वीकार नहीं था। राजनीति के गलियारे में भटकने के बावजूद महात्मा गांधी ने मनुष्य मात्र को देखा, उसे जातियों में विभाजित नहीं किया। शोषित, पीड़ित और दमित जन को ईश्वर की संतति विशेष के रूप में सम्मानित किया। वे समदर्शी थे। सत्य को साध कर उन्होंने स्वयं को संकल्पित होकर समर्पित किया देश की स्वतंत्रता, जनमुक्ति और विश्व बंधुत्व के लिए।
बुद्धिजीवी भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के अगुआ बन गए। देश के आमजन उनके स्वर में स्वर मिलाते हुए, उनके साथ कदमताल करते हुए जोश और जुनून के साथ पूरी तरह लग गए। भारत स्वतंत्र हुआ। गांधी के नहीं चाहने के बावजूद भारत का विभाजन हो गया। आजादी के आंदोलन को नेतृत्व देने वाले नेताओं के बीच सत्ता पाने की होड़ लग गई। आपसी खींचातानी शुरू हो गई। सत्ता पर काबिज होने के प्रपंच से गांधी भी अछूते नहीं रहे। राजनीति के कीचड़ छींटे बनकर उनके दामन पर गए। गांधी दुखी, पीड़ित और विचलित हुए। 1947 में आजादी मिली। कुर्सी की लड़ाई हुई। स्वतंत्रता के नायक गांधी पर कई कलंक लगे और फिर 1948 में भ्रमित बुद्धि, विवेकहीनता, जड़ता, उग्रता और हिंसा के वे शिकार हुए। उनकी मृत्यु हुई। गांधी की हत्या एक ऐसी कलंक गाथा है जिसकी आह से भारत शायद ही कभी मुक्त होगा।

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गांधी की मृत्यु पर कोई एक देश मात्र नहीं बल्कि रोई थी भारत माता! लहूलुहान हो गई थी इस देश की आत्मा। त्राहिमाम कर उठी थी मानवता। जिस क्रांतिवीर शहीद-ए-आजम भगत सिंह को गांधी के बरक्स देखने की परिपाटी शुरू हुई है, उसी भगत सिंह ने गांधी को भरपूर मान-सम्मान दिया और लिखा-बम और पिस्तौल से क्रांति नहीं आती, क्रांति की तलवार विचारों की सान पर तेज होती है। गांधी विचार के पर्याय हैं। वे सर्वजन हित की बात करते हैं। निजी स्वार्थ से सर्वथा परे गांधी का जीवन परमार्थी था। नितांत मानवीय और आध्यात्मिक विवेक पर आधारित उनके उच्चादर्श सदा सर्वोपरि थे और आज भी हैं। यह बदले हुए समय का आईना है जिसमें गांधी को हम उल्टा करके प्रतिबिंबित देखते हैं।
गांधी को सब मानते थे। उनका किसी से वैमनस्य नहीं था। भारतीय स्वतंत्रता से पूर्व देश की आवश्यकता के अनुसार समय की मांग को ध्यान में रखते हुए गांधी कभी नेहरू, तो कभी पटेल, तो कभी सुभाष चंद्र बोस को कांग्रेस का अध्यक्ष बनाने की पहल करते थे, बनाते भी थे। गांधी से असहमति किसी की नहीं थी। उनका कहा हुआ सर्वमान्य होता था। स्वराज को गांधी स्वाभिमान और आत्मानुशासन के रूप में व्याख्यायित करते थे।

वे कहते हैं 'स्वराज्य का अर्थ तो यह है कि स्वराज्य में कोई भी हिंदू या मुसलमान एक क्षण के लिए भी गर्वपूर्वक यह नहीं सोच सकता कि वह निर्भय होकर किसी भी हिंदू या मुसलमान को कुचल सकता है। गांधी को कठघरे में खड़ा करना है तो करना है यह ठान कर ही इन दिनों बहस हो रही है। गांधी सबके थे, हमें इस रूप में उन्हें देखने और समझने की आवश्यकता है। वे छुआछूत के भेदभाव पर साफ-साफ कहते हैं, उन दिनों मेरा विश्वास था कि अस्पृश्यता हिंदू धर्म का अंग नहीं है और यदि वह उसका अंग है तो ऐसा हिंदू धर्म मेरे काम का नहीं। भारतीय सनातन परंपरा और हिंदू धर्म पर आक्षेप करने वालों तथा मनुस्मृति को पाखंड बताने वालों को गांधी अपने स्पष्ट विचारों से कहते थे, मनुस्मृति की प्रत्येक आज्ञा का पालन करने वाला या पालन करने की इच्छा रखने वाला एक भी हिंदू मेरे देखने में नहीं आया और यह सिद्ध करना बहुत सहज है कि जो ऐसा करेगा वह अंत में गिर कर रहेगा। गांधीजी का हिंदुत्व किसी संकीर्णता में नहीं, बल्कि उदारता और सर्वजनीनता में उजागर होता है। सर्वधर्म सद्भाव को जीने वाले गांधी जी प्रार्थना में गाते रहे - ईश्वर अल्ला तेरो नाम, सबको सन्मति दे भगवान।
आज गांधी विश्व पुरुष के रूप में समादृत हैं। उन पर कवियों, लेखकों और चिंतकों की जमकर लेखनी चली। उनके विचारों से आलोकित अनेक व्यक्तित्व सादगी, सच्चाई और सदाशयता का जीवन जीते हुए अपने जीवन को सार्थक कर रहे हैं।

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प्रकृति के सहचर ऐसे लोग आने वाली पीढ़ियों के प्रेरक और आदर्श हैं। देवत्व को सहेज कर मानव-कल्याण के लिए सर्वदा कार्य करते रहने वाले एक निष्कलुष, विकुंठ और करुणावान विराट मनुष्य का नाम गांधी है। गीता के ज्ञान को आत्मसात करने वाले महात्यागी महात्मा गांधी मोहविनष्ट ऐसे मृत्युंजय थे जिनका लहूलुहान तड़पता शरीर निढाल हो रहा था। मगर आंखों से क्षमा कर देने वाली करुणा प्रवाहित हो रही थी और कंठ से हे राम! के शाश्वत स्वर फूट पड़े थे। भारत की आजादी का उद्देश्य राजनीतिक गुलामी नहीं है और नहीं है विचार स्वतंत्रता के नाम पर उछृंखलता, अशिष्टता और अनुशासनहीनता! भारत के वृहत्तर और बहुजातीय समाज को अनुप्राणित होने के लिए गांधी चाहिए। युद्ध के उन्माद और हिंसा की विभीषिका में फंसे विश्व को भी गांधी चाहिए। मनुष्य को मनुष्य होने की दीप्ति से आलोकित होने के लिए गांधी चाहिए। संकट और भटकाव से गांधी ही बचा सकते हैं। गांधी, फिर फिर गांधी!
(यह लेखक के निजी विचार हैं।)

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