मोदी की विदेश नीति नेहरू की राह पर

अमेरिका ने इराक, लीबिया और अफगानिस्तान पर हमला किया, तो भारत ने अमेरिका की निंदा नहीं की। आज रूस को आक्रांता के रूप में पेश करने वाला अमेरिका अपने गिरेबान में झांककर देखे, तो पता चलेगा कि उसने भी कई बार अपनी ताकत का उपयोग करके कई देशों की जनता को लहूलुहान किया है।

Created By : ashok on :01-03-2023 16:12:48 संजय मग्गू खबर सुनें


संजय मग्गू
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब भी कांग्रेस पर हमला बोलते हैं, तो देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की नीतियों की आलोचना करना नहीं भूलते हैं। वे नेहरू को कठघरे में खड़ा करना नहीं भूलते हैं। लेकिन जब से रूस- यूक्रेन युद्ध शुरू हुआ है,

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तब से लेकर आज, जब इस युद्ध को शुरू हुए एक साल से अधिक हो चुका है, इस मामले में विदेश नीति की बात होती है, तो अनायास पंडित नेहरू का जिक्र वैश्विक स्तर जरूर आ जाती है। रूस और यूक्रेन युद्ध मामले में अब तक मोदी सरकार ने न तो रूस की निंदा की है, न ही यूक्रेन के प्रति कोई अतिरिक्त प्रेम ही जाहिर किया है। जवाहर लाल नेहरू जब प्रधानमंत्री बने थे, तो उन्होंने विदेश नीति में गुट निरपेक्षता का सिद्धांत प्रतिपादित किया था। उन्होंने जब भी अमेरिका या रूस में से किसी भी देश या किसी दूसरे देश ने किसी तीसरे देश पर हमला किया, तो उन्होंने इस विवाद में पड़ने से हमेशा बचने का प्रयास किया और वे सफल भी रहे। 1956 में जब सोवियत संघ ने हंगरी में हस्तक्षेप किया तो उसके एक साल बाद नेहरू ने संसद में इस बात की सफाई भी दी थी

कि उन्होंने इस मामले में क्यों हस्तक्षेप नहीं किया था। उनका कहना है कि दुनिया में बहुत सारी घटनाएं होती हैं। कई घटनाओं को हम नापसंद करते हैं, लेकिन जब समस्या का समाधान खोजा जा रहा हो, तो उस समय निंदा करने का कोई मतलब नहीं है। नेहरू का यही रुख तब भी कायम रहा जब 20 अगस्त 1968 को रूस के नेतृत्व में वारसा पैक्ट के सैनिकों ने प्राग में सुधारवादी रुझानों को रोकने के लिए चेकोस्लोवाकिया पर हमला किया। या फिर 1979 में अफगान मुजाहिद्दीनों को रोकने के लिए सोवियत रूस ने अफगानिस्तान पर हमला किया।

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पिछले साल जून में भारतीय विदेश मंत्री एस जयशंकर ने स्लोवाकिया की राजधानी ब्रातिस्लावा में प्रेस कांफ्रेंस में लगभग वही बात दोहराई जो 1957 में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू कह चुके थे। नेहरू की गुट निरपेक्षता की नीति को उनके बाद आने वाली सरकारों ने अपनाया। अमेरिका ने इराक, लीबिया और अफगानिस्तान पर हमला किया, तो भारत ने अमेरिका की निंदा नहीं की। आज रूस को आक्रांता के रूप में पेश करने वाला अमेरिका अपने गिरेबान में झांककर देखे, तो पता चलेगा कि उसने भी कई बार अपनी ताकत का उपयोग करके कई देशों की जनता को लहूलुहान किया है।

अब वह चाहता है कि भारत अपने पारंपरिक मित्र रूस की निंदा करे। उस मित्र की जिसने ब्रिटिश भारत में वर्ष 1900 में सबसे पहला वाणिज्यिक दूतावास खोला था। हालांकि उन दिनों रूस में जाारशाही का शासन था। अपनी गुट निरपेक्षता की नीति के चलते भारत ने किन्हीं भी दो देशों में चल रहे युद्ध का कतई समर्थन नहीं किया है। रूस-यूक्रेन का वह आज भी समर्थन नहीं करता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी आज भी बराबर इस प्रयास में है कि यह युद्ध किसी तरह रुक जाए, लेकिन वह किसी भी देश की निंदा करने या दबाव डालने को तैयार नहीं हैं। और यही उचित भी है।

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