सिने जगत का एक बुलंद सितारा थे राजकपूर।
राजकपूर साहब को हिंदी सिनेमा में अपनी अद्भूत अदाकरी और निर्माता-निर्देशक के तौर पर कई पुरस्कारों से नवाजा गया, साल 1960 में फिल्म अनाड़ी के सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का अवॉर्ड दिया गया।
Created By : ashok on :14-12-2022 11:46:33 स्मिथा सिंह खबर सुनें
भारतीय सिनेमा को दुनिया में अलग पहचान दिलवाने वाला, सिने जगत का एक बुलंद सितारा थे राजकपूर। जिन्हें हिन्दी सिनेमा शोमैन के रूप में जानता है, उन्होंने क्लैपर बॉय, स्पॉट बॉय से अभिनेता, निर्माता और निर्देशक का सफर तय किया। राजकपुर का जन्म 4 दिसंबर 1924 को पेशावर जो अब पाकिस्तान में है वहां पठानी हिंदू परिवार में हुआ, उनके पिता थे भारतीय रंगमंच के अग्रदूत और हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के दिग्गज अभिनेता पृथ्वीराज कपूर और माता का नाम रामशर्णी देवी कपूर था। राजकपूर साहब का बपचन का नाम रणबीर राजकपूर था।
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उनके भाई-बहन के नाम शशि कपूर, शम्मी कपूर, नंदी कपूर और उर्मिला सियाल कपूर थे। राजकपूर की पत्नी का नाम कृष्णा कपूर था। जिनके लिए सुना गया कि कृष्णा रिश्ते में राज कपूर साहब की बुआ लगती थी, क्योंकि वो पृथ्वीराज कपूर की मामा की बेटी थी कृष्णा। हालांकि साल 1946 में उन्होंने ही दोनों की शादी करवाई थी। राजकपूर के परिवार में उनके बच्चे रणधीर कपूर, ऋषि कपूर, राजीव कपूर, बेटी रितु नंदा और रीमा जैन हैं। राजकपूर ने अपनी पढ़ाई सेंट जेवियर्स कॉलेजिएट स्कूल, कोलकाता और कर्नल ब्राउन कैम्ब्रिज स्कूल देहरादून से की।
साल 1930 के दशक में बॉम्बे टॉकीज और पृथ्वी थियेटर जो कि राजकपूर साहब के पिताजी पृथ्वीराज कपूर की ही कंपनियां थी वहां उन्होंने क्लैपर बॉय के रूप में अपने करियर की शुरुआत की। ये फिल्म विषकन्या का सेट था, जिसे किदार शर्मा ने डायरेक्ट किया था और इस दुनिया में राजकपूर का पहला कदम था क्लैपर बॉय के रूप में, और फिर अभिनेता के तौर पर काम किया। राजकपूर ने बाल कलाकार के तौर पर साल 1935 में आई फिल्म इंकलाब में काम किया, इसके अलावा साल 1943 में आई फिल्मों, हमारी बात और गौरी में भी छोटी-छोटी भूमिका निभाई थीं,
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नारद, वाल्मिीकी और अमर प्रेम जैसी फिल्मों में वो भगवान कृष्ण की भूमिका में नजर आए, लेकिन इतना काम भी उन्हें वो संतुष्टी नहीं दे सका, जिसकी उन्हें चाह थी क्योंकि राज कपूर खुद एक निर्माता-निर्देशक बनकर खुद की फिल्म बनाना चाहते थे और मात्र चौबीस साल की उम्र में उन्होंने अपना ये सपना पूरा किया। साल 1948 में फिल्म आग का प्रोडक्शन – डायरेक्शन संभाला, साथ ही इसमें मुख्य भूमिका भी निभाई। उसके बाद साल 1950 में मुंबई के चैम्बूर में चार एकड़ की जमीन लेकर एक भव्य स्टूडियो बनाया, जो आर के स्टूडियो के नाम से फेमस हुआ।
इसी के बैनर तले राजकपूर साहब ने आवारा, श्री-420, बरसात, जागते रहो, मेरा नाम जोकर जैसी सुपर-डुपर फिल्मों का लेखन निर्देशन करने के साथ इनमें अभिनय भी किया। उनके उम्दा अभिनय, डॉयलॉग बोलने के सादगी भरे सहज भाव ने लोगों को उनका मुरीद किया।
मेरा नाम जोकर उनके करियर की सबसे बेहतरी फिल्म रही जिसमें एक की बजाय दो इंटरवेल थे, और ड्यूरेशन थी साढे चार घंटे। वहीं राजकपूर की फिल्म आवारा एक ऐसी फिल्म थी जिसमें कपूर खानदार की तीनों पीढ़ियां पर्दे पर नजर आईं। 1951 में रिलीज हुई इस फिल्म में राज कपूर के साथ उनके दादा जी, दीवान बशेश्वरनाथ, पिता पृथ्वीराज कपूर भी थे। इसी चलन को उनके बेटे रणधीर कपूर ने फिल्म कल आज और कल में दोहराया था, जिसमें रणधीर कपूर के साथ, रजकपूर और पृथ्वीराजकपूर साथ दिखे।
राजकपूर साहब की कई पॉपुलर हिट फिल्में हैं जिन्होंने बॉक्स ऑफिस पर लंबे अरसे तक धमाल मचाए रखा। संगम, अनाड़ी, जिस देश में गंगा बहती है, बॉबी, राम तेरी गंगा मैली और प्रेम रोग जैसी हिट फिल्मों का निर्देशन कर राजकपूर ने फिल्म जगत में अपनी एक अलग, सफल पहचान बनाई। हिंदी फिल्मों में खुलापन लाने, रोमानी फिल्मों अंग प्रदर्शन का चलन, राजकपूर साहब के ही नाम ही है।
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इसलिए राजकपूर और विवादों का साथ भी चोली दामन का रहा। फिल्मों में अश्लीलता लाने के लिए उन्हें हमेशा कोसा गया। अपने दौर की सफलताओं के बाद भी उनके निजी जीवन में उठापटक रही, सुना गया कि उनकी पत्नी अक्सर घर छोड़कर चली जाती थी क्योंकि राजकपूर साहब के कई एक्ट्रेस जैसे नर्गिस, पद्मिनी और वैजयंती माला के साथ संबंध की खबरें उस जमाने में अखबारों की सुर्खिया बनी रहती थीं। स्वर कोकिला लता मंगेश्कर के साथ भी उनका विवाद रहा, जिसके चलते लता दीदी ने उनसे बात करना भी बंद कर दिया था, क्योंकि वायदे के मुताबिक राजकपूर साहब ने उनके भाई को म्यूजिक डायरेक्टर का काम नहीं दिया था।
वैसे राजकपूर साहब की करीब 2 दर्जन फिल्मों में शंकर जयकिशन की जोड़ी ने म्यूजिक दिया था, और उनकी अदाकारी से सजी फिल्मों में ज्यादातर मुकेश कुमार और मन्ना डे की आवाज है, इसलिए जब मुकेश दा का निधन हुआ तो राजकपूर साहब ने कहा था कि मैने अपनी आवाज खो दी है।
राजकपूर साहब को हिंदी सिनेमा में अपनी अद्भूत अदाकरी और निर्माता-निर्देशक के तौर पर कई पुरस्कारों से नवाजा गया, साल 1960 में फिल्म अनाड़ी के सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का अवॉर्ड दिया गया। 1962 में जिस देश में गंगा बहती है के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेता पुरस्कार, 1965 में संगम फिल्म के लिए सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का पुरस्कार, 1972 में मेरा नाम जोकर है फिल्म के लिए सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का पुरस्कार, साल 1983 में फिल्म प्रेम रोग के लिए सर्वश्रेष्ठ निर्देशक के पुरस्कार से सम्मानित किया गया। कला के क्षेत्र में भारत सरकार द्वारा साल 1971 में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया। साल 1987 में उन्हें दादा साहब फाल्के पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया।
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राज कपूर जितना जीवन जिए बिंदास जिए, विवादों – विपरीत बयारों का बाद भी फिल्मी करियर भी शानदार रहा, एक ऐसी शख्सियत जो पर्दे के पीछे और पर्दे पर, दोनों जगह अपनी समान, अमिट पहचान बनाने के कामयाब रही। लंबे वक्त से अस्थमा से पीड़ित राजकपूर साहब 2 जून 1988 को 63 साल की उम्र में दुनिया को अलविदा कह गए। और जाते जाते भी सिखा गए, द शो मस्ट गो ऑन। क्योंकि हिन्दी सिनेमा का ये एक ऐसा बुलंद सितारा रहे जिनके हर किरदार ने जिन्दगी के हर पहलू को स्क्रीन पर उतारा, और हर बार बताया कि दुनिय़ा में कुछ भी घटे बढ़े, टूटे-बने, आगमन हो या विदाई, आगाज हो या अंत, The show must go on”