महिलाओं को चाहिए आलसी होने का हक

जो भी पुरुष अपने घर की महिलाओं के घरेलू कामों में हाथ न बंटाए, उसको जेल भेजा जाए। हड्डियों को भी कंपा देने वाली सर्दियों की रात में वह भी अपने बाप, भाई, पति या पुत्र से साधिकार कहने का सामाजिक और संवैधानिक हक पा जाए कि जरा, पीने के लिए पानी गरम करके ले आओ।

Created By : ashok on :06-01-2023 15:04:03 संजय मग्गू खबर सुनें


संजय मग्गू


हिंदुस्तान की महिलाएं यह सोचकर खुश हो सकती हैं कि हो सकता है भविष्य में कोई उनके लिए भी अपने देश की संसद में सीना तानकर कहे कि देश की महिलाओं को भी पुरुषों की तरह आलसी होने का हक है।

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जो भी पुरुष अपने घर की महिलाओं के घरेलू कामों में हाथ न बंटाए, उसको जेल भेजा जाए। हड्डियों को भी कंपा देने वाली सर्दियों की रात में वह भी अपने बाप, भाई, पति या पुत्र से साधिकार कहने का सामाजिक और संवैधानिक हक पा जाए कि जरा, पीने के लिए पानी गरम करके ले आओ। वह भी पुरुषों की तरह घरेलू कामों से अवकाश ले सके। इन दिनों फ्रांस की संसद में एक नारा गंूज रहा है कि राइट टू बी लेजी।

पेरिस की सांसद सैंड्रिन रूसो पूरे फ्रांस में संसद से लेकर सड़कों तक एक अभियान चला रही हैं कि महिलाओं को भी आलसी होने का संवैधानिक हक मिलना चाहिए। जो भी पुरुष घरेलू कामों में महिलाओं का बराबर हाथ न बटाएं, उनको जेल भेजा जाए। सैंड्रिन रूसो के इस अभियान को पूरी दुनिया में खास तवज्जो मिल रही है। रूसो का कहना है कि पूरी दुनिया में पुुरुष घरेलू कामों में 30 प्रतिशत ही भागीदारी करते हैं। जिसकी वजह से एक आम महिला घर से लेकर बाहर तक पुरुषों के मुकाबले ज्यादा काम करती है। ऐसी स्थिति में अब समय आ गया है कि पुरुष भी महिलाओं के कामों में बराबर हाथ बटाएं या फिर बदले में जेल जाएं। सैंड्रिन रूसो की यह मांग हम भारतीयों को हास्यास्पद लग सकती है। लेकिन यदि हम अपनी पितृसत्तात्मक अकड़ को दरकिनार करके सोचें, तो महिलाओं की आवाज बनकर उभरने वाली सैंड्रिन रूसो की यह मांग जायज लगती है।

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भारत में ही नहीं, दुनिया के लगभग हर हिस्से में घरेलू काम महिलाओं के मत्थे मढ़ दिया गया है। बरतन और कपड़े धोने से लेकर खाना बनाने जैसे हर घरेलू कार्य महिलाओं को ही करना पड़ता है। इसके लिए उन्हें कोई मेहनताना तो दिया नहीं जाता है। इतना ही नहीं, बच्चों का पालन पोषण, सास-ससुर, देवर-ननद की सेवा, विवाह से पहले पिता, भाई, बहन और मां की देखभाल सब कुछ महिलाएं ही करती हैं।

पुरुष तो जेब में हाथ डाले बस हुकुम देता रहता है। चाहे वह पिता हो, भाई हो या पति हो। हर पुरुष अपने घर की औरतों को फोकट की नौकरानी समझता है। वे नाराज न हो जाएं, घरेलू काम को लेकर स्ट्राइक न कर दें, इसलिए वह उन्हें भावनात्मक संबंधों की डोर में बांधे रखता है। कोढ़ में खाज वाली स्थिति यह भी है कि महिलाएं घर से बाहर निकल कर कमाने जाती हैं, तो वहां भी उनका शोषण होता है।

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वे पुरुषों के मुकाबले आठ घंटे में ढाई से तीन गुना ज्यादा काम करती हैं। लेकिन वेतन वे पुरुषों से कम ही पाती हैं। मां, बहन, बेटी और बीवी का तमगा गले में लटकाए ये औरतें दिन-रात खटती रहती हैं, बिना किसी तरह का विरोध जताए, बिना कोई उजरत लिए, बिना किसी साप्ताहिक अवकाश की मांग किए। फ्रांस की सांसद सैंड्रिन रूसो ने इसी प्रवृत्ति के खिलाफ आवाज उठाई है। उनकी यह मांग मानवीय आधार पर कहें, तो बिल्कुल जायज है। लेकिन लाख टके का सवाल यह है कि क्या मर्दवादी विचारधारा वाले समाज में यह संभव है? ऐसा फिलहाल तो नहीं लगता है। भविष्य में शायद ऐसा हो।

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