पर्यावरण मामले में `चीख` कि लब आजाद हैं तेरे
वैज्ञानिकों के अनुसार 100 डेसीबल से अधिक का शोर मानव श्रवण शक्ति को प्रभावित करता है इसीलिए विश्व स्वास्थ्य संगठन ने 45 डेसीबल तक की ध्वनि को एक सुखद शहरी जीवन के लिए आदर्श ध्वनि के रूप में स्वीकृत किया है।
Created By : ashok on :03-03-2023 15:14:46 निर्मल रानी खबर सुनें
निर्मल रानी
वायु व जल प्रदूषण से पहुंचने वाले नुकसान को लेकर हमारा भारतीय समाज अभी तक पूरी तरह सजग नहीं हो सका। जिसे देखिये जगह जगह धुंआ करते, कूड़ा करकट जलाते, पेड़ काटते, जल की व्यर्थ बर्बादी करता दिखाई देता है, उसी तरह शायद लोग ध्वनि प्रदूषण के चलते आम लोगों तथा वातावरण को पहुँचने वाले नुकसान से भी अनभिज्ञ हैं। ध्वनि प्रदूषण के लिए विशेषज्ञों द्वारा जिन चीजों को प्रमुखता से चिन्हित किया गया है, उनमें हवाई जहाज, रेल, ट्रक, बस, कार व बाइक जैसे निजी वाहन, सार्वजनिक यातायात के अनेक साधन तथा इनके इंजन व हॉर्न से निकलने वाला अनियंत्रित शोर तो ध्वनि को प्रदूषित करता ही है, इनके अतिरिक्त फैक्टरियां, तेज ध्वनि में बजने वाले लाउडस्पीकर, निर्माण कार्य आदि भी ध्वनि प्रदूषण फैलाने के मुख्य कारक हैं।
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इनके अलावा विभिन्न त्योहारों या शादी ब्याह के अवसर पर चलाई जाने वाली जहरीली आतिशबाजी भी ध्वनि प्रदूषण बढ़ाने के साथ-साथ वायु को भी प्रदूषित करती है। यह ध्वनि प्रदूषण शुगर और उच्च रक्तचाप के रोगियों के लिए इतना नुकसानदायक होता है कि इससे उनकी मौत तक हो सकती है। ध्वनि प्रदूषण से मनुष्य के कान के अन्दर मौजूद वे हियर-सेल्स जो श्रवण शक्ति को बढ़ाते हैं, वो पूरी तरह समाप्त भी हो सकते हैं नतीजतन कान से सुनाई देना बन्द हो सकता है। अनिद्रा की शिकायत शुरू हो जाती है।
यही नहीं बल्कि अनियंत्रित ध्वनि से दिल की धड़कन भी कम हो जाती है और उच्च ब्लड प्रेशर भी हो सकता है। यहां तक कि बहुत अधिक शोरगुल मानव का खून भी गाढ़ा कर सकता है जिसके कारण हार्ट अटैक का खतरा भी बढ़ जाता है। बहुत तेज ध्वनि कान के पर्दों को हानि पहुँचा सकती है। ध्वनि प्रदूषण केवल मानव जाति के लिए ही नहीं बल्कि पशुओं के लिए भी बेहद खतरनाक होता है। अधिक ध्वनि प्रदूषण के कारण जानवरों के प्राकृतिक रहन-सहन में बाधा आती है। उनका खान-पान, आवागमन यहां तक कि उनकी प्रजनन क्षमता व उनकी प्रवृति आदि सब कुछ प्रभावित होती है। सूर्यास्त के बाद होने वाली आतिशबाजियाँ तो विशेषकर पक्षियों को इतना विचलित करती हैं कि वे अपने घोसलों से भयवश उड़ जाते हैं। रात के अंधेरे में इधर उधर टकराकर मर जाते हैं।
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वैज्ञानिकों के अनुसार 100 डेसीबल से अधिक का शोर मानव श्रवण शक्ति को प्रभावित करता है इसीलिए विश्व स्वास्थ्य संगठन ने 45 डेसीबल तक की ध्वनि को एक सुखद शहरी जीवन के लिए आदर्श ध्वनि के रूप में स्वीकृत किया है। हैरानी की बात है कि महानगरों व बड़े शहरों में ध्वनि प्रदूषण का पैमाना नियमित रूप से 90 डेसीबल के ऊपर जा चुका है। इसका कारण जहाँ ध्वनि प्रदूषण के उपरोक्त समस्त कारक हैं, वहीं धर्म-आस्था, व्यवसाय, पाखंड तथा भीख मांगने वालों द्वारा पूरी स्वतंत्रता के साथ निर्बाध फैलाया जाने वाला ध्वनि प्रदूषण कम नुकसानदायक नहीं है।
शहरों व कस्बों की हालत इस समय ऐसी हो चुकी है कि सुबह सवेरे एक या अनेक भिखारियों की टीम सूर्योदय से पहले ही कालोनियों में प्रवेश कर जाती है। विभिन्न तरीकों से चीख चिल्लाकर डफली या ढोल, डमरू आदि बजाकर सोते हुए लोगों को उठाकर भीख मांगने लगती है। अभी इनका 'चीखो अभियान' चल ही रहा होता है कि इतने में मेहनतकश सब्जी व फलफरोश गलियों में प्रवेश कर जाते हैं। आजकल सब्जी-फल विक्रेताओं ने तरक्की कर अपने ठेलों, रेहड़ियों पर लाउडस्पीकर लगा लिया है। निश्चित रूप से इससे उन्हें अब गला फाड़कर चिल्लाने की जरूरत नहीं पड़ती, परन्तु लाउडस्पीकर से वह गली तब तक शांत नहीं होती जब तक कि वह सब्जी या फल फरोश चला न जाए।
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इसी तरह लगभग सारा दिन लाउडस्पीकर लगाकर कोई कबाड़ी कबाड़ खरीदने की गुहार लगता है तो कोई कंघी वाले बाल खरीदने का शोर करता सुनाई देता है। कभी बर्तन वाला तो कभी कपड़ों वाला, कभी कालीन-गलीचों वाला तो कभी शनि या अन्य देवी देवताओं या अल्लाह-भगवान के नाम पर भीख मांगने वाला। शोर मचाकर, चीख चिल्लाकर आम लोगों को विचलित करना, इनका स्वभाव बन चुका है। इसी तरह यदि आप रेल या बस में यात्रा करें तो वहां भी भिखारी आपके सिर पर खड़े होकर गाला फाड़कर चिल्लाएंगे, ढोल या डफली, खंजरी आदि बजाएंगे और बाद में भीख मांगने लगेंगे। आम आदमी इन सब बातों से दुखी होने के बावजूद इन्हें झेलने के लिए अभिशप्त रहता है। उधर समाज का एक वर्ग पुण्य कमाने की गरज से इन अवांछनीय तत्वों को कुछ पैसे देकर इनकी चीखने की 'आजादी' की हिमायत भी करता है। मस्जिदों की अजानें हों या मंदिरों की आरतियां व शंखनाद, सड़कों पर हो रहे जगराते या अन्य धार्मिक व सामाजिक आयोजन, आए दिन कहीं न कहीं किसी न किसी अवसर पर निकलने वाली शोभायात्राओं में इस्तेमाल होने वाले लाउडस्पीकर आदि स्वयं मानव जीवन के लिए अत्यंत हानिकारक हैं। शादी ब्याह जैसे समारोहों में बजने वाले डीजे व ढोल-नगाड़े आदि सभी इंसान के बहरापन और उच्च रक्तचाप के कारक हैं।
विशेषज्ञों और वैज्ञानिकों की तमाम चेतावनियों के बावजूद और सरकार द्वारा इसे नियंत्रित करने के अनेक कायदे-कानून व नियम निर्धारित करने के बावजूद कान फाड़ शोर का जारी रहना, इसी बात की ओर इशारा करता है कि शायद हमारे देश का आम आदमी इसी अंदाज से बेरोकटोक जीने को ही वास्तविक आजादी समझता है। इसलिए एक सतर्क और जागरूक परन्तु असहाय व लाचार बना बैठा व्यक्ति ऐसे लोगों के लिए तो सिर्फ सद्बुद्धि की प्रार्थना ही कर सकता है। अन्यथा कहना होगा कि 'चीख' कि लब आजाद हैं तेरे।'
(यह लेखिकाके निजी विचार हैं।)